Saturday 22 August 2015

दुनिया दुनिया न रहे ग़ज़ल हो जाए : लावा

लावा जावेद अख्तर का ग़ज़लों और नज्मों का दूसरा संग्रह है, जो पहले संग्रह से लगभग 20 वर्ष बाद आया है. इन बीस वर्षों में पूरी दुनिया की तस्वीर बदल चुकी है और एक पीढ़ी जवान हो चुकी हैं औए  मनुष्य के सामने नई चुनोतियाँ, नये सवाल और नये विचार भी सामने आ चुके हैं. इन चुनोतियों का सामना यह ग़ज़ल संग्रह करता है.


इस संग्रह में 145 ग़ज़लें शामिल की गयी जिसमें एक बात स्पष्ट  नजर आती है कि लेखक ने उन विवादों को थाम दिया है जो कविता ग़ज़ल को लेकर होते रहें हैं. उन्होंने ये दिखा दिया है कि अपनी बात छंद मुक्त और छंद युक्त दोनों ही तरीके से कही जा सकती है. लेखक ने दोनों ही कला का बेहतर  प्रयोग किया है.

किसी बात को कहने का जितना अच्छा तरीका और सलीका उनको आता है शायद वही तरीका लिखने में दिखता है. जब व्यक्ति अंतर्मन के द्वंद्व में जकड़ा रहता है और वस्तु और विचार के उद्भव पर सोचता है तो  जावेद अख्तर इसे इस प्रकार लिखते हैं –
      कोई ख़याल
      और कोई भी जज़्बा
      कोई शय हो
      पहले-पहल आवाज़ मिली थी
      या उसकी तस्वीर बनी थी
      सोच रहा हूँ

जावेद अपने गहरे और विस्तृत चिंतन को प्रस्तुत करते हुए  लिखतें है कि तमाम लोग भेड़ चाल या घिसे-पिटे रास्ते पर चलते रहते हैं जिनको वो ठीक नहीं मानते.
      जिधर जाते हैं सब उधर जाना अच्छा नहीं लगता
      मुझे पामाल रास्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

आज पूरा समाज एक ख़ास तरह की चुप्पी या मौन साधे हुए है.  बहुत से लोग गलत विचारों को सुनते  है और आगे चल देते है. जावेद जी की पैनी नज़र इस पर भी गयी है-
      गलत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फायदे इसके मगर अच्छा नहीं लगता

भारत जैसे देश में जहाँ बहुआयामी सांस्कृतिक विरासत की बहुलता है. जिसे बहुत से लोगों ने अपनी जान देकर सजोकर रखने की कोशिश की है, वह आज टूटने की कगार पर है. दंगा-फसाद, साम्प्रदायिकता इत्यादि मनुष्यता का नाश करने में लगे हैं. वहीं अख्तर जी संवेदनशीलता कहती है –
      ये क्यों बाकी रहे आतिश-जनों, ये भला जला डालो
      कि सब बेघर हो और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता

 सम्बन्धों, रिश्तेनातों में आज जो नये तरह के उलझाव पैदा हो गये हैं उनको समझने का मौका जावेद जी की ग़ज़ल में देखने को मिलता है कि अब गलती स्वीकार नहीं की जाती बल्कि थोपी जाती है-
      उठाके हाथों से तुमने छोड़ा,चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
      अब उलटा हमसे ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों हैं

जावेद ने अपनी कलम उस खेल पर भी चलाई जिसको की बुद्धिजीवी वर्ग का खेल कहा जाता है- शतरंज. इस तरह उन्होंने कला, साहित्य और खेल को भी वर्गीय दृष्टि से देखा है –
      मैं सोचता हूँ
      जो खेल है
      इसमें इस तरह का उसूल क्यों है
      कि कोई मोहरा रहे की जाए
      मगर जो है बादशाह
      उस पर कभी कोई आंच भी न आए

आँसू मनुष्य की जिन्दगी का बहुत ही संवेदनशील हृदयस्पर्शी अहसास है जो बहुत कम लोगों की समझ में आता है. जावेद ने लिखा है –
      ये आँसू क्या इक गवाह है
      मेरी दर्द-मंदी का मेरी इन्सान-दोस्ती का...
      मेरी ज़िन्दगी में ख़ुलूस की एक रौशनी का...
      जहाँ ख़यालों के शरह ज़िन्दा हैं...
      झूठे सच्चे सवाल करता
      ये मेरी पलको तक आ गया है.

इंसानी रिश्ते बहुत ही जज़बाती होते हैं. जुदाई, मिलन, स्नेह, क्रोध ये सब उन्हीं पर करते हैं जिन्हें वे प्यार करते हैं या जिन पर यकीन करते हैं. यह नहीं तो कुछ नहीं –
      यकीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा
      तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा

जावेद अख्तर ने उन लोगों को पहचान लिया था कि जो सबके साथ हैं और किसी के साथ नहीं. ऐसे लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के साथ खड़े होते हैं-
मुसाफिर वो अजब है कारवां में
कि हमराह है शामिल नहीं

आज के दौर में अन्धविश्वास और आडम्बरों का पुनः उत्थान हो रहा है. पहले भी चार्वाक, बुद्ध, कबीर जैसे लोगों ने उस पर बहुत चोट की. जावेद जी ने भी उसी परम्परा का निर्वाह किया है-
      तो कोई पूछे
      जो मैं न समझा
      तो कौन समझेगा
      और जिसको कभी न कोई समझ सके
      ऐसी बात तो फिर फ़ुज़ूल ठहरी

जावेद अख्तर का नाम उन शायरों जरूर गिना जायेगा जब बात सितमगारों, चमनगारों की होगी. उन शायरों में भी गिनती होगी जिसने अपनी शायरी के माध्यम से हुक्मरानों की आँखों में आँख डालकर सच को सच और न्याय को न्याय कहा –
      खून से सींची है मैंने जो मर-मर के
      वो ज़मी एक सितमगार ने कहा उसकी है

और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि -
वो चाहता है सब कहें सरकार तो बेऐब है
      जो देख पाए ऐब वो हर आँख उसने फोड़ दी

ऐसा नहीं है कि जावेद ने सिर्फ दूसरों पर ही लिखा. अपने बारे में, समय के बारे में, मानवीय व्यवहार के बदलते पैमाने पर भी उन्होंने लिखा है-
      गुज़र गया वक्त दिल पे लिखकर न जाने कैसी अजीब बातें
      वरक (पृष्ठ) पलता हूँ जो मैं दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं

आज का मनुष्य दुःख, आशंका, कड़वाहट, द्वेष, अजनबीयत और अलगाव का शिकार हो चुका है. तमाम एकता और संघर्ष के नारों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा –
      सच तो यह है
      तुम अपनी दुनिया में जी रहे हो
      मैं अपनी दुनिया में जी रहा हूँ

प्रस्तुत संग्रह आवाज़ है उन लोगों की जो सुनी नहीं जाती. यह आगाज़ है उन तरंगों का जिनका अहसास बहुत दूर तक जाता है. यह सम्बोधन है अपने समय से कि वक्त सदा आगे बढ़ता है. यह ललकार है उनके लिए जो वक्त से आगे की सोचते हैं.
      “न कोई इश्क है बाकी न कोई परचम है
      लोग दीवाने भला किसके सबब हो जाएँ”

समीक्षक - एम.एम.चन्द्रा
लावा : जावेद अख्तर | प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 

'रचनाकार डॉट ओर्ग' पर 
एम.एम.चन्द्रा द्वारा 
'लावा' गज़ल संग्रह की समीक्षा -

http://www.rachanakar.org/2015/08/blog-post_689.html#more
       

   

Tuesday 18 August 2015

समकालीन इतिहास का जीवन्त और प्रमाणिक दस्तावेज : इतिहास जैसा घटित हुआ


मंथली रिव्यू पत्रिका में पिछले 50 वर्षों के दौरान प्रकाशित लेखों का यह संग्रह ‘‘हिस्ट्री ऐज इट हैपेन्ड’’ का हिन्दी अनुवाद है । 1949 से आज तक लगभग 6 दशक की अपनी यात्रा में इसने विश्व इतिहास की भारी उतार-चढ़ाव और उथल-पुथल भरी घटनाओं को देखा- शीत युद्ध का आरम्भ और अंत, तीसरी दुनिया के देशों की जनता का उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद, जियोनवाद और हर तरह के शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष, समाजवाद और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के कार्यभारों को पूरा करने के प्रयास, सोवियत संघ और युगोस्लाविया का विघटन, समाजवादी धारा का सामयिक रूप से पीछे हटना, राष्ट्रीय मुक्ति की धारा का साम्राज्यवाद के आगे आत्मसमर्पण और पूँजीवाद विश्व व्यवस्था का असमाधेय संकट।

यह पुस्तक एक ऐसी विचारधारा से पाठको का परिचय कराएगी जो आलोचनात्मक नजरिया अपनाते हुए भी समाजवादी विचारो के प्रति अपनी आस्था को बनाये रखती है। यह पुस्तक इसलिए भी महत्त्वपूर्ण कि दुनिया नये- नये मुद्दों और संकटों का सामना कर रही है, उन पर पकड़ हासिल करने के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण के साथ सृजनात्मक ढंग से प्रयास किया गया है। यह वैकल्पिक आवाज को सुनने का अवसर प्रदान करती है।

लेखों का एक अन्य गुच्छा समाजवादी परिप्रेक्ष्य के साथ नये मुददों और रूझानों को समझने के लिये मंथली रिव्यू द्वारा किये गये प्रयासों का प्रमाण हैं । महिलाओं की मुक्ति, धर्म और साथ ही क्रान्तिकारी धर्मशास्त्र, नशीले पदार्थ, पर्यावरण, प्रकृति और विज्ञान या वित्तीय पूँजी की बढ़त के बारे में लेख इसी श्रेणी में आते हैं ।

लेखों का एक तीसरा समूह एक खास ऐतिहासिक मोड़ पर घटित महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं को समेटती है तथा मुक्ति संघर्षों और प्रगतिशील आन्दोलनों को, आलोचनात्मक दृष्टि से ही सही, रेखांकित करता है ।
समीक्षक - एम.एम. चन्द्रा
आई.एस.बी.एन - 81-87772-32-8 (पेपरबैक संस्करण)
विषय - इतिहास
संस्करण - प्रथम
वर्ष - 2014
प्रकाशक - गार्गी प्रकाशन
कीमत - 150 रुपये
पृष्ठ सं. -364

Monday 17 August 2015

ग्रामीण जीवन को ध्यान में रखकर रचा गया व्यंग उपन्यास : अक्कड़-बक्कड़


नवउदारवादी दौर में ग्राम्य जीवन पर बहुत कम उपन्यास लिखे गये हैं. खासकर 1990 के बाद तो ग्रामीण पृष्ठभूमि साहित्य सृजन से लगभग गायब सी हो गयी है. सुभाष चंदर जी का यह व्यंग उपन्यास साहित्य सृजन के इसी खाली पड़ाव को भरने की कोशिश ही नहीं करता बल्कि ग्रामीण जीवन के विशेष  युवा वर्ग को ध्यान में रखकर रचा गया उपन्यास है. इसमें उन युवाओं की आकांक्षा, कुंठाओं, विशेषताओं को दर्शाया गया है जो सभी जगह मिल जाते हैं. जैसे- शहर के लम्पट युवक, गाँव के वे युवक जिन्हें आवारा, नकारा, काम के न काज दुश्मन अनाज के कहा जाता है. जो हर चौराहे, नुक्कड़ और स्कुल-कॉलेज में कम संख्या में होते हुए भी बदनाम रहते हैं. यह उपन्यास उन युवकों की मनोदशा का भी वर्णन करता है कि बेरोजगार क्या सोचता है, क्या करता है. उपन्यास के युवकों की कहानी आज के बेरोजगार युवकों से मेल खाती है जो नशाखोरी, दबंगई, झपटमारी, दूसरों को बेवकूफ  बनाना, चोरी-चकारी तथा अपनी आकाँक्षाओं व महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए साम, दाम, दंड भेद सभी तरह के जुगाड़ करता है. “मन्नू एंड कम्पनी साईकिल पर कब्जा जमा लेते हैं, उन्हें तो बस! साईकिल के नये टायर-ट्यूब और घंटी वगैरह से लगाव था जिसे बिंदा मकेनिक खोलकर उन्हें सौंप देता.” पांडू एक जगह पर सोचता है कि “काश गुड्डो का फूफा बीच में न टपका होता तो आठ सौ बीस रुपये की राशि को डेढ़ हजार तक पहुँचा देता.”

उपन्यास के माध्यम से बताया गया है कि वैश्वीकरण का असर युवकों के आदर्शो पर किस तरह पड़ता है. 1990 के बाद के युवकों के आदर्श बदल चुके हैं. वे मानवीयता वाले रोजगार नहीं पाना चाहते, वे उस रोजगार को चुनते हैं जिसमें सिर्फ पैसा ही पैसा हो. “रोब, कमाई, ठुल्लगिरी आदि प्रलोभनों के अलावा कुछ और भी कारण थे जिनके कारण पांडू पुलिस में जाने का इच्छुक था.”
सुभास चंदर जी ने उपन्यास के माध्यम से सरकार द्वारा आदर्श ग्राम बनाने की खोखली योजनाओं की खूब खबर ली. “नंगला तो क्या आस पास के गाँव तक के लोग कब्ज आदि उदर रोगों को दूर करने के लिए इस खडंजे पर वाहन चलाते हैं. जब से ललुआ धोबी की गर्भवती बहू ने इस खडंजे के प्रताप से बैलगाड़ी में बच्चे को जनमा तब से लोग खडंजे को और ज्यादा इज्जत देने लगे थे.”
वहीं आज के गाँव के सामाजिक, आर्थिक ताने बाने को भी सहज ढंग से प्रस्तुत किया. “क्रम कुछ इस प्रकार का था कि पहले पक्के मकान आते थे जो बामन, बनियों, राजपूत आदि के थे, उसके बाद कच्चे मकानों का नम्बर आता था जिन पर पिछड़ी जातियों का कब्जा था और आखिर में झोंपड़ियाँ आती थी जिनका मालिकाना हक दलितों के पास था.”

उपन्यास में भारतीय रेल और यात्रियों की दुर्दशा को बहुत ही कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है. “साथ-सत्तर किलोमीटर चलने में रेलगाड़ी ने मात्र 5 घंटे लिए हैं.”

इस उपन्यास की एक खूबी यह भी है कि यह आधुनिक मानव के चित्र को बहुत ही रचनात्मकता के साथ उकेरा गया है. पांडू नामक पात्र अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए हृदयहीन व्यक्तित्व का चरित्र निभाता है. वह अपने से गरीब बूढ़े आदमी को भी लूट लेता है जो अपनी बेटी के ससुराल बिना टिकट जाता है. “ला....चालीस ही ला...जानता है.....पुलिस पकड़ लेगी तो सालों जेल में सड़ेगौ. जब उसकी पेट में चालीस रुपयों का दाना पहुँचा तभी पांडू की हिनहिनाहट रुकी.”

सुभाष चंदर जी की खूबी यह है कि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के व्यवहारिक भाषा में अपनी बात कही है. इश्क-विश्क जैसी चीज आज के युवक को सिर्फ अपनी मंजिल या हिडन एजेंडा जैसी मंजिल को पाने का साधन होती है. यह भी आज के युग की सच्चाई है. वैसे सिर्फ लड़के धोखा नहीं देते लडकियाँ भी कभी-कभी मसखरी करती हैं. गुन्नू भी दिल्ली आकर अंतिम बार प्यार में सफल होना चाहता है. एक लड़की लड़की से बात बनी, घूमे-फिरे लेकिन एक दिन लड़की ने गुन्नू को अपने पति और बच्चों से मिलवाया. “बेटा मामा जी नमस्ते करो.” गुन्नू बेहोश! होश आने पर गुन्नू अपने दोस्तों से बोला : “यार चंदू दिल्ली की लड़कियाँ भी कमाल होती हैं. इनकी त्वचा से इनकी उम्र का पता ही नहीं चलता.”


एक पाठक, आलोचक और समीक्षक के नाते इस व्यंग उपन्यास की सफलता इसी में है कि यह एक बार में पठनीय है. लेकिन इतनी पठनीयता होने के बाद भी यह पुस्तक किसी को बेहतर आदर्श प्रस्तुत नहीं करती, न ही किसी समस्या का विकल्प देती है. कहा जाता है कि व्यंग अगर सटीक हो तो पाठक स्वयं हल की तरफ बढ़ता है. इस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा. हाँ ! वर्तमान मनुष्य के अंतर्मन में दबी हुई इच्छा, अभिलाषा, अराजकता और उससे उपजे मानवीय व्यवहार का विस्तार अध्ययन करती है.

समीक्षक -एम.एम. चंद्रा
अक्कड-बक्कड : सुभाष चंदर | प्रकाशन : भावना प्रकाशन | कीमत : 200 रुपये 

 हिन्दी वेबदुनिया डॉट कॉम में प्रकाशित समीक्षा -
http://hindi.webdunia.com/hindi-books-review/book-review-115082000030_1.html

Saturday 15 August 2015

समाजवाद के मूल सिद्धांतों की झलक : ‘समाजवाद का ककहरा’


समाजवाद का ककहरा के लेखक लियो हूबरमन वामपंथी बुद्धिजीवियों के लिए नहीं, बल्कि सुधी पाठकों के लिए भी सुपरिचित नाम है। मशहूर पुस्तक मैन्स वर्ल्डली गुड्स का हिन्दी अनुवाद ‘मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ’ गार्गी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है और पाठकों ने इसे काफी सराहा है। न्यूयार्क से प्रकाशित पत्रिका ‘मंथली रिव्यू’ के संस्थापक संपादक के रूप में समाजवाद के प्रचार–प्रसार में उनका अनुपम योगदान रहा है।

                         
वामपंथी प्रचार के बारे में अपने बहुमूल्य लेख में लियो हूबरमन ने समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार की सही शैली के बारे में जो प्रस्थापनाएं दी हैं उनका अनुसरण करते हुए लियो ने इस पुस्तिका में बहुत ही बौधगम्यशैली अपनायी है। उनका मानना था कि “सच्चाई हमारे पक्ष में हैं। समाजवादी प्रचारकों का काम उस सच्चाई को सुस्पष्ट और अत्यंत स्वीकार्य रूप में प्रस्तुत करना है।... भारी भरकम शब्दावली और गली–गलौच न तो किसी विषय को स्पष्ट करते हैं और न ही उसे स्वीकार्य बनाते हैं। वामपंथी जुमलेबाजी जैसे ‘फासीवादी नरपशु’ या ‘साम्राज्यवाद का पालतु कुत्ता’ काम के बोझ से लदे वाम पंथी लेखकों के लिए आसन तरीका हो सकता है, लेकिन इसका उन लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं जो पहले से ही मनोहर वामपंथी दायरे में शामिल न हुए हों।... जब तथ्य इतना चीख-चीख कर और इतने स्वीकार्य रूप से हमारी बात कह रहे हों तो भला बढ़ाचढ़ा कर या तोड़-मरोड़ कर कहने की जरूरत ही क्या है?” (मंथली रिव्यू, सितम्बर 1950)
इस पुस्तक में समाजवाद के मूल सिद्धांतों को अमरीकी समाज की सच्चाइयों के आधार पर बहुत ही तार्किक, सुस्पष्ट और कायल बनाने वाली शैली में प्रस्तुत किया गया है।

गार्गी प्रकाशन से प्रकाशित लेखक लियो ह्यूबरमन की ‘समाजवाद का ककहरा’ पुस्तक आप सभी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इस पुस्तक का अंग्रेजी भाषा से हिन्दी भाषा में अनुवाद पारिजात ने किया है।

समाजवाद का ककहरा | लियो ह्यूबरमन | अनुवाद : पारिजात | अर्थशास्त्र | ISBN : 81-87772-29-8 | पेपरबैक संस्करण | कीमत 45 रुपये