Sunday 4 October 2015

सतरंगे स्वप्नों के शिखर : समीक्षक - डॉ अनुराधा शर्मा

                                   

सदियों से कविता कवि के संवेदनशील हृदय की सूक्ष्म अनुभूतियों के मंथन को परिभाषित करती रही है। जब मानव मन की भावनाओं के अथाह सागर में दबी तरंगे अनुभव की कंपन से कंपित होती हैं, तब कविता के रूप में ज्ञात स्थिति के अज्ञात गर्म को आकार देती है। कोई भी विकास अथवा परिवर्तन कवि की संवेदनषीलता को नहीं बदल सका तथा यही कारण है कि आज भी अपने समय तथा समाजानुकूल तीव्र गति से कविता लेखन हो रहा है। ‘‘सतरंगे स्वप्नों के शिखर’ प्रस्तुत काव्य संग्रह, लम्बे समय से हिन्दी साहित्य जगत् से जुड़ी मृदुभाषी, सुकोमल हृदय, शिक्षा विद्, सैकड़ों शोध पत्र, समीक्षाएं, आलेख, कहानियां तथा लघुकथाएं लिखने वाली पूर्व विभागाध्यक्ष ;हिन्दी विभाग गुरू नानक देव विश्वविद्यालयद्ध डा. मधु संधु का प्रथम कविता संग्रह है। संग्रह में लगभग 48 कविताएं तथा 5 क्षणिकाएं संकलित हैं जो समय-समय पर हरिगंधा, अनुभूति, वेबदुनिया, गर्भनाल, संवेद, संचेतना, सृजनलोक, रचना समय, रचनाकार आदि प्रिंट मीडिया तथा वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
       प्रस्तुत कविता संग्रह की अधिकतर कविताओं में सदियों की परिपाटी पर चली आ रही स्त्री की जीर्ण-शीर्ण व्यवस्था का वर्णन है। आकंाक्षा, स्त्री विमर्श, स्त्री -पुरूष, हाशिया, अर्थ स्वतन्त्र स्त्री, स्त्री, सुख, अवचेतन, मेरी उम्र सिर्फ उतनी है, प्रजनन आदि कविताएं स्त्री की उस मनोदशा का वर्णन करती है जहां उसे पुरातन काल से अब तक केवल सहनशीलता तक सीमित रखा गया है। आधुनिक समाज के आधुनिक पुरूष की मानसिकता स्त्री हेतु आज भी सौ-साल पीछे ही है। इसी पीड़ा को कवियत्री ने दिखाया है। ‘आकांक्षा’ कविता भ्रूण हत्या के पुरातन तथा आधुनिक सामाजिक कृत्यों का मार्मिक वर्णन है।यथाः-
       ‘‘पलंग के पाए तले रखकर
       पितृसत्ताक के सत्ताधारी
       उस लोक पहुंचा देते थे
       ............................................
       वैज्ञानिक उपलब्धियों ने
       भ्रूण हत्याओं का अविष्कार करके
       मुझे पितृसत्ताक दुखों के
       उस पर जा फेंका’’ (11-13)  
स्त्री जीवन की विडम्वना का वर्णन है कि उसकी स्वतंत्रता पर लगी घात उसे निष्प्राण बनाती है। तथा प्रत्येक युग की प्रताड़ना का गवाह उसका संयम तथा मौन उसे शक्ति प्रदान करता है। वह बदल रही है। कवयित्री आधुनिक युग की स्त्री के सशक्त रूप को देखते हुए आशावान है। ‘अकांक्षा’ की स्त्री आसमान पाना चाहती है। तो ‘स्त्री-पुरूष’ कविता की स्त्री ने अपने अस्तित्व से सर्वस्व स्थापित किया है। ‘हाश्ेिाया’ कविता की स्त्री हाशिये से दूर रहकर भी अपने आप को साबित कर चुकी है। कवयित्री का सकारात्मक दृष्टिकोण स्त्री के परिवर्तन प्रति आशावान है।
स्त्री के मातृत्व युक्त स्वरूप   का वर्णन कवयित्री ने बहुत सी कविताओं में किया है। प्रजनन, रागात्मकता, धरोहर, मां और मैं, दीपावली आदि कविताएं मां के अनमोल वात्सल्य से लुब्ध है। बच्चों का मां के पास होना उसकी दीपावली’ हो जाता है यथाः-
‘‘मैंने दीपावली जी है
हर बार
जब मेरे बच्चे
होस्टल से घर लौटते है...........
उदासी की सब परतें धोकरे
आतिशबाजियों से, रोशनी से
चकाचौंध कर देते हैं
बच्चे मेरे मन को’’ (30-31)
विवेचय कृति की अधिकतर कविताएं कवयित्री के अनुभव की आंच पर पकी है। ‘‘गुडि़या तथा मेरी बेटी के बेटे’’ आदि कविताएं कवयित्री के उस मीठे अनुभव को चित्रित करती है जहां सूद मूल से अधिक प्रिय हो जाता है। कविताएं लावण्या तथा सर्वज्ञ के इर्द-गिर्द नानी मां की दुनियां को प्रस्तुत करती है।

कवयित्री ने पुत्री के अस्तित्व को भी स्थापित करने का प्रयास किया है। मेरी बेटी, मेरे देश की कन्या, बेटी, सहोदर, लड़कियां, विस्थापन पुर्नवास के लिए अभिशप्त बेटियां, बिटिया की विदाई पर आदि कविताओं में कवयित्री ने बेटियों के प्रति पुरानी मानसिकता को त्यागने तथा बेटी के मर्म को पहचानने की बात की है जिसे आज भी समाज तथा परिवार की नज़रें काटती है। कविताएं हृदय स्पर्शी है।

कविताएं रोज़मर्रा के जीवन धागों से बुनी है। वर्तमान समाज के परिवर्तन बाजारावाद का वर्णन भी कवयित्री ने अत्यंत सूक्ष्म ढंग से किया है। पंचतत्व, अनास्था, किषोर स्टाफ, बौने वृक्ष, अकेलपन आदि कविताएं बाजारावाद के परिणाम को अत्यन्त गहनता से अभिव्यक्ति देती है। अर्थ तथा समाज के हाथों पंचतत्व का बदलता स्वरूप, अस्पताल का बाजारीकरण तथा अंधी आस्था के नाम पर बाजार में भगवान के नाम को बेचा जाता है। बाजारवाद से उपजी विसंगतियों के साथ-साथ बौने हो रहे समाज का मर्म स्पर्शी वर्णन किया गया है। ‘ऐंटरैंस कविता शिक्षा के बाजारीकरण की आड़ में शतरंज के छुपे खेल का वर्णन करती है।
‘युद्ध’ कविता युद्ध के उस स्वरूप को स्पष्ट करती है, जहां युद्ध का ग्रास वे लोग बनते हैं जों सीमाओं से बंधे सुख ढूंढते हैं। तो दूसरी तरफ पर्यावरण कविता में कवयित्री की गहन चिंता है बढ़ रहे वैज्ञानिक प्रदूषण के प्रति। सम्प्रेषण के साधन बढ़ने , आत्मीयता तथा संवेदनाओं के समाप्त होने से प्रत्येक स्तर पर प्रदूषण घर कर रहा है। ‘पर्यावरण’ में कवयित्री कहती है।
‘‘मेरे मन का
पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है
वह तो ढूंढता है
आत्मीयता।’’ (93)
कवयित्री ने वर्तमान समय की विकास जनित पीड़ा में जिए हुए क्षणों का वर्णन अधिकतर कविताओं में किया है। ‘प्रतिभा प्रवास’ कविता अपने देश की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह है। युवा अर्थोपार्जन हेतु स्वदेश में खाक छानकर प्रवास का रूख कर रहे हैं। प्रवास गया युवा अर्थाेपार्जन करने वाला आधुनिक श्रवण है जो माता-पिता से दूर उन्हें केवल अर्थ सुख दे सकता है। वहीं ‘पहली दुनिया’ कविता जुगाड़ लगाकर धन हेतु प्रवास गए आम व्यक्ति के स्वयं को महामानव मान लेने के आभास को चित्रित करती है।

कवयित्री लम्बे समय तक शिक्षा जगत से जुड़ी रही है ‘‘यहीं कारण है उन्होंने अनुभव जनित कुटिल सत्य को अत्यंत गहनता से प्रस्तुत किया है। प्रशासन तथा शिक्षा जगत् की जर्जर व्यवस्था को शब्दों के माध्यम से उघाड़ा है। ‘ग्रेडिड वेतन’ सरकारी नौकरी करने वाले लोगों का सत्य है। ‘संगोष्ठी’ ‘नहीं करना’ आदि कविताएं विश्वविद्यालयों में बैठे महान् लोगों के दिखावे को दिखाती है।

विवेच्य कृति की सम्पूर्ण कविताओं के भाव कवयित्री की गहन धड़कनों से बहतें दिखाई देते हैं। उन्होंने अपने अनुभव की छटपटाहट को शब्द दिए हैं।  कविता के सम्बन्ध में यह प्रमाणित सत्य है कि भाषा जितनी बहुआयामी होगी कविता उतनी प्रभाविष्णु तथा प्रमाणित होगी। कविता संग्रह की सभी कविताओं में कवयित्री ने विविधता संम्प्रेषणीयता के साथ-साथ भावों को अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से प्रस्तुत किया है। जगह-जगह पर कवयित्री ने आशावादिता के स्वर में आस्था प्रकट की है। भाषा सहज, सार्थक, समयानुकूल तथा वर्तमान भावानुभूतियों को प्रकट करती है। विवेच्य काव्य संग्रह कवयित्री द्वारा किया गया एक सुखद प्रयास है। जहां उन्होंने जीवन के उलझे धागों को आशा सहित सुलझाने का प्रयत्न किया है।

समीक्षक .डॉ अनुराधा शर्मा 

कवयित्री             :डा. मधु संधु
प्रकाशक             :अयन प्रकाशन्       
पृष्ठ संख्या     :110
मूल्य          : 240 रूपये 
आई. एस. बी. एनः 978-81-7408-842-0

सम्पर्क-ांनेींसण्ंदन9/हउंपसण्बवउ

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