राष्ट्रीय
एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका डाॅ. मधु सन्धु का द्वितीय कहानी संग्रह
दीपावली /अस्पताल.काॅम 2015 अयन प्रकाशन दिल्ली
से प्रकाशित बीस कहानियों एवं छब्बीस लघुकथाओं का एक बेजोड़ संकलन है। सद्य लिखित-प्रकाशित रचना का अवलोकन स्वयं मे ही नवीनता और ताज़गी की अनुभूति देता है।
दीपावली/अस्पताल.काॅम शीर्षक ही प्रस्तुत पढ़ने के लिए बाध्य कर जाता है। इस कहानी की चर्चा आगे रहेगी।
वस्तुतः ये कहानियाँ समकालीन होकर भी अपने से एक दषक एक पीढ़ी आगे की कहानियाँ भी कही
जा सकती हैं। पुस्तक का आगाज़ एक बेहद् खूबसूरत कहानी ‘कुमारिका गृह’ से हुआ है। यह प्रौढ़ कुमारियों-अविवाहिताओं का गृह है। जहाँ
सभी स्त्रियाँ एक छत के नीचे, उच्चस्तरीय रहन सहन की गरिमा से दीप्त अपनी खुषियाँ और आह्लाद
बाँट रही हैं। दुःख शेयर नहीं करती क्योंकि दुःखों को पीछे छोड़ ही तो उन्होंने इस
‘होम’ का वरण किया था। वे दुःख जो उन्हें उनके अपनों ने दिये थे। कुमारिका
गृह एक ऐसी सृष्टि है जहाँ कोई भी स्वेच्छा से इसका वरण करना चाहेगा। ये आत्म निर्भर
आर्थिक सुद्ढ़ कुमारिकाएँ जीवन का एक-एक क्षण खुषी से जी रही हैं। जीवन को झेल नहीं
रहीं क्योंकि वे मानवी है ‘हव्वा’ को कब की दफ़न कर चुकीं ।
डाॅ. मधु संधु का यह कथा संग्रह बौद्धिकों का नवाज़ता है। प्रत्येक
कहानी के पात्र कैसे भी हों, हार कर भी उबर आते हैं, टूट कर भी जोड़ जाते हैंै, भविष्य निधि योजनाएँ बाखूबी बनाना जानते हैं। सम्बन्धों के स्तर
पर इन कहानियों में असम्बध या सम्बधहीनता कही नहीं आईं। स्थिति कैसी भी हो ये कहानियाँ
बिखराव को टाँके लगाकर सँवार जाती है। संग्रह की जीवनघाती, फ्रैक्चर, कैटेरेक्ट कहानियों का पति पुरुष अहम् के कारण पत्नी के अहम्
को ओवरटेक करना चाहता हैं, कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता परन्तु यह स्त्री, यह पत्नी मौन होकर भी अपनी भूमिका को कमज़ोर नहीं पड़ने देती।
पति को सहारा दे रही, आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान
कर रही है। मन से न जुड़ कर भी स्त्री धर्म से पीछे नहीं उदाहरण प्रस्तुत है। -- “मैं देर रात घर पहुँचता, यह बाहर का दरवाज़ा खुला छोड़ सो जाती। मैं इसके आने-जाने को
लेकर घड़ी पर गहरी सख़्त नजर डालता, यह दिनों के लिए मायके चली जाती। मैं अपनी अल्मारियों को ताले
लगाकर घर में प्रायवेटाइजे़षन लाता, वह अपना लाॅकर तक खुला छोड़ देती।“ (पृ॰ 48) वस्तुतः यह एक पत्नी का मौन विद्रोह है बौद्धिक विद्रोह जो कसमसा
देता है। क्योंकि यह स्त्री बहुत गहरी है, सषक्त है। इसी प्रकार
‘फ्रैक्चर’ कहानी में बीमारी और फ्रैक्चर सारी परिवार को जोड़ जाता है तो
‘कैटेरेक्ट’ में उम्र के तीसरे पड़ाव पर खड़े व्यक्ति का ढलती उम्र का संत्रास
है कि कहीं वह बुढ़ा गया है। ‘डायरी’ कहानी एक प्रौढ़ अविवाहिता की कहानी है जिसने जिन्दगी को अपने
ढंग से अपनी शर्तो पर जीया है लेकिन अकेलेपन की सीमाओं को वह लाँघ नही पा रही। ‘तन्वी’ सिंगल पेेरेन्ट की कहानी
है। एकल माँ तन्वी ने अपने इकलौती बेटी अप्सरा को डाॅक्टर बनाया, उसका विवाह किया परन्तु वही बेटी एक भरापूरा ससुराल पाकर माँ
के लिए अजनबी होती जा रही है पर इतना कुछ होकर भी यह अकेली पड़ती माँ हारती नहीं साउंड
करती।
डाॅ. संधु की कहानियों की विषिष्टता यह है कि वह जो भी विषय
लेती हैं उसमें गहरे पैठ जाती हैं और फिर उससे जुड़े चिन्तन मनन के मोतियों के साथ
ही बाहर आती हैं अन्य के लिए कुछ भी नहीं छूटता।
बाल मनोविज्ञान पर ‘मुन्ना’ कहानी लिखी तो मुन्ना हो गईं, किषोर मनोविज्ञान पर ‘दी तुम बहुत याद आती हो’ लिखी तो छोटी बहन हो गयी। वस्तुतः उन्होंने अपनी प्रत्येक रचना
के पात्र को जीया है उस स्थिति, उस स्थान पर खुद होकर देखा है फिर जो लिखा वह अप्रतिम हो गया।
उनकी पैनी सूक्ष्म दृष्टि से कुछ भी विगत नहीं हो पाता कोई गुंजाइष नहीं बचती। उनकी
सास बहु सम्बन्धों पर ‘चैनल’ कहानी दिल को छूती है अपनी मार्मिकता के कारण नहीं, बल्कि आज के आधुनिक परिवारों के घरेलू पचड़ो और पुत्र पति की
दोहरी स्थिति में निहत्थे पुरुष की कहानी, जिसके लिए गृह युद्ध में एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है। अजय
का क्रियेष्चन लड़की शीतल से विवाह करना माँ को एक आँख नहीं भाता, पर यह सास पारम्परिक सास के सिहांसन पर ज्यादा देर बैठ नहीं
सकती क्योंकि बहू भी पूरे जोड़ की है- उदाहरण प्रस्तुत है “नी भरावां खाणिए, काका क्यों रो रहा है।“ माँ पूछती।
दादी के मरने का शोक मना रहा है। “शीतल झट जबाब देती। वह सोचता दोनों जोड़ की हंै। चलने दो। यह सोचने की उसने कभी
चेष्टा नहीं की, कि शुरुआत कहाँ से होती
है।" (पृ॰ 86) लेकिन कहानी का अंत नोकझांेक के बावजूद रिष्तों को करीब ला रहा
है। सम्बन्ध हीनता के स्थान पर नये सम्बन्ध सृजित करती है ये कहानियाँ।
इसी प्रकार युवा मन की आंकाक्षाओं, धड़कते सम्बन्धों पर आधारित कहानी ‘मैरिज ब्यूरो’ मोबाइल क्रांति की कहानी है। मोबाइल और स्मार्टफोन तो आज हमारे
लिए आॅक्सीजन बन गये हंै। प्रेम सम्बन्धों में पहला उपहार आज मोबाइल का आदान प्रदान ही तो बन रहा है। सन्मार्ग
ने मंषा को अपना प्रेमापहार मोबाइल दिया खुद से बतियाने को, प्रेम स्पन्दनों को महसूसने को। लेकिन यह बौद्धिक नायिका जानती
है कि दिल पागल हो सकता है परन्तु दिमाग नहीं। इसी मोबाइल को अस्त्र बना वह बचपन के
साथी स्वरजीत को जो कि विदेष में सैटेल है, ऊँची नौकरी पर है, से विवाह कर सन्मार्ग को ठेंगा दिखा जाती है। भई इस पहलू पर
तो हम सोच ही न सके। लेखिका की कहानियाँ एक भोगे, जीते हुए यथार्थ का आईना है। लगभग प्रत्येक कहानी में कोई न
कोई विभाग उद्योग या इण्डस्ट्री है। वस्तुतः ये कामकाजियों की कहानियाँ है। बेरोजगारी, विसंगति आदि पर बात करना बीते युग का यथार्थ है। ‘आवाज का जादूगर’ में ट्यूरिज़म इण्डस्ट्री है तो, ‘गोल्डन व्यूह’ में मैरिज रिजाॅर्ट इण्डस्ट्री, ‘शोधतंत्र’, ‘इन्टेलैक्चुअल’, ‘ग्रांट’, ‘संगोष्ठी’, ‘हिन्दी दिवस’ आदि में षिक्षा जगत तो दीपावली/अस्पताल.काॅम में चिकित्सा जगत
और हाॅस्पीटल बिजनस है। जहाँ मरीजों का स्वागत दूल्हों सा होता है। मैडीकल ट्रीटमेन्टस
के विभिन्न पैकेज हैं, लुभावना संसार है। अनेकों
अनावष्यक चिकित्सीय सेवाओं के नाम पर बनाये भारी भरकम बिल्स हैं।
अस्पतालों की दिन रात दीवाली
और चांदी है। तो मरीजों और उनक परिवारों के लुटे पिटे बैक बैलेन्स। जैसे बेटी के विवाह
में सामथ्र्य से अधिक खर्च कर चुके पिता का बेटी की विदाई के बाद दोहरा दुःख। कहानी
की पंक्तियाँ झंकृत कर जाती हैं – “ये दीवाली के आस पास के दिन थे।....... और अस्पताल में डाॅक्टर
मरीज़ों के गैर ज़रूरी आपरेषन कर स्टंेट डाल मरे हुओं को वेंटीलेटर में रख दीपावली
मना रहे थे।....... अब घर में मुर्दनी सा ही माहौल है। दीपावली की कोई हलचल नहीं है। पहले संवाद की एक विषेष स्थिति थी- रेनोवेषन
...... और अब सब ठप्प होने की संवादहीनता, मुर्दनी।” (पृ॰ 58) क्योंकि सारी जमापूँजी तो अस्पताल की दीपावली रौषन कर गई और
यहाँ रह गयी अमानिषा।
लेखिका अध्यापन में कर्मरत रही इसलिए संग्रह में एक अच्छी खासी
संख्या षिक्षा जगत् विष्वविद्यालीय वातावरण, साहित्यिक शोषण और गहन परदों की गिरह खोलती रचनाओं की है। ‘षोधतंत्र’ में रिसर्च फैलो का दषावतार है कि वह फैलो को छोड़कर हर व्यक्ति
का दायित्व निभा रहा है। परन्तु वह हताष नहीं इस भट्टी ने उसे कंुदन बना डाला। अन्त
भले का भला हो गया। कहानी में साहित्यिक सम्मेलनों की तथ्यगत सच्चाइयाँ है। सरकारी
ग्रांट हमारे उत्सवों का सामान हो रही है तो ‘संगोष्ठी’ कहानी में षिक्षा को साम्प्रदायिक बना सहकर्मियों का मानसिक
शोषण करने वाले अध्येयता हैं। कट, काॅपी, पेस्ट के नाम पर अपनी साहित्यिक उपलब्धियाँ गिनाते गुरुदेव हैं।
लेकिन इसके समानान्तर ही संचेतन पात्रों की वैतरणी भी बहती रही है।
जहाँ अनुभवों की
भट्टी ने इन्हें कंचन कर डाला, शोषण ने जूझने की क्षमता दी। दलित विमर्ष पर लिखित ‘संरक्षक’ कहानी में शोषित होती युवती प्रेमी और पिता दोनों द्वारा ही
दैहिक शोषण का षिकार हो रही है। परन्तु यह किसी दूसरे के कुकृत्य के अपराध बोध से टूटती
नहीं क्योंकि उसका हाथ थामने वाली सषक्त स्त्री उसकी बहन सबको मुहँतोड़ जवाब देकर उसेे
एक नया संबल और जिजीविषा प्रदान कर जाती है।
काॅरपोरेट जगत के वातावरण से रूबरु करवाती ‘सनराइज़ इन्डस्ट्री’ इसके भीतर की छटपटाहट को सामने जाती है कि आकर्षक वेतन पैकेज
पा कर भी कथानायक एक घरेलू स्त्री से ही विवाह करना चाहता है। अभि कहता है – “न बाबा न। उसे मालूम है कि कम्पनियाँ अपने एम्पलाॅजय को इतना
बाँधती है कि गृहस्थ जीवन टुकडे़-टुकड़े हो जाता है। वह बस इतना जानता है कि पत्नी
हाउस वाइफ हो तो घर में स्वीट होम की कंसैप्ट
बनी रह सकती है। एकल परिवार के उबाऊपन से छुटकारा पाने के लिए वह तो ममा पापा
को भी साथ-रखना चाहता है।” (पृ॰ 29) लेकिन विडम्बना यह है कि “घरेलू पत्नी को भी कई बार यहाँ का जीवन जीने लायक नहीं लगता।
विपिन की पत्नी ने उससे इसलिए नाता तोड़ लिया कि कई बार कम्पनी उसे देर रात तक उलझाए
रखती थी।” (पृ॰ 29) वस्तुतः यंत्र जीवन जीता यह सैक्टर मोहन राकेष के ‘घर की खोज’ की चाह पाने मे सक्षम नहीं हो पर रहा छटपटा रहा है। ‘संगणक’ कहानी फैटंसी षिल्प में लिखी गयी है जहाँ कम्प्यूटर आने से पुस्तकें
वेदनामय होकर अपनी सुख-दुख सांझे कर रही हैं।
संग्रह के दूसरे भाग में 26 लघुकथाएँ छब्बीस पृष्ठों में ही समा गई हैं। जिनमें व्यंग्य
है, जिजीविषा है, विमर्ष है, पुरुषीय अह्म है जो स्त्री डाॅक्टर को मात्र लेडी डाॅक्टर यानि
गायनाकोलजिस्ट मान जुकाम की भी उससे दवा लेना नही चाहता। भीख एवं भिखारियों का नवीनीकरण
है, ‘बीजी’ और ‘वोटनीति’ लघुकथाओं में चुनावी समझौते हैं, अलादीन के चिराग से विभागीय क्लर्क हैं। ‘लिव इन’ सम्बन्धों पर एक नई दृष्टि डालती लघुकथा है जिसमें दैहिकता के
स्थान पर बंधनों-रिष्तों केे पचडे़ में न पड़कर एक रूममेट, एक साथी जैसा सौहाद्र और स्वच्छन्दता भी है।
भाषिक स्तर पर प्रत्येक कहानी के परिवषानुसार शब्द संयोजन, विभागीय, तकनीकी शब्दाबली लघु परन्तु सषक्त वाक्य संरचना, अल्पविरामों का बहुल प्रयोग, समास शक्ति से युक्त भाषा, समय की मांगानुसार अंग्रेजी शब्दों का बहुल प्रयोग तथा मनः स्थितियों
के अनुसार रंग बदलती भाषा के रूप दिखायी देते है।
शिल्प के स्तर पर पूर्वदीप्ति और फ्लैष बैक का भी बहुधा प्रयोग
मिलता है, कहीं एकालाप है, कही दिवास्वप्न, कहीं बिम्ब, कहीं प्रतीक, कही नवीन उपमान, कहीं कथानक हा्रस, कहीं बिन्दुओं को लगाकर स्थितियाँ बदलती गई हैं। परन्तु कथातत्व
कहीं भी प्रदूषित नहीं हुआ कहानी कहानी ही रहती है। रूपकों के परिधान ओढ़ कर भी अपनी
छवि कमज़ोर नहीं पड़ने देती।
वस्तुतः डाॅ. मधुसंधु की प्रत्येक रचना उनके उस विषय से जुडे़
गहन अध्ययन, शोध परक दृष्टि और कड़े होमवर्क के बाद निकला ब्रैंड है।
जिसकी अपनी विलक्षणता है। अपना अंदाज है। इनके पात्र हारते नहीं, जूझते हैं। रेंगते नहीं सरसराकर क्षिप्रता से निकल भागते हैं।
दाँतों तले उंगली दबाकर विस्फारित नेंत्रों से पाठक इन्हें देखता रह जाता है। ऐसी रचनाएँ
जो वर्षों तक मानस पर अंकित रहती है।
समीक्षक -डाॅ. शैली जग्गी
कहानी - डाॅ मधु संधु
पुस्तक - दीपावली@अस्पताल.काॅम
प्रकाशन - अयन प्रकाशान
पृष्ठ - 128
मूल्य - 250 रूपये ।
आई. एस. बी. एनः 978-81-7408-842-0
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